Monday 9 December 2013

कोरे ख़त आते रहे

                                                                   
                                    
                       हमने उनकी तुलना               
चाँद से क्या कर दी
वह रात भर आईने को
सताते रहे

अनजाने ही हो गई
कुछ ऐसी गुफ्तगू
अकेले में वह
घंटों मुस्कुराते रहे

साँझ की गोद में
रवि सो गया
रात भर चाँद के
ख्वाब आते रहे

इंतजार में
तितलियों के
फूल रात भर
ओस में नहाते रहे

 उनके स्नेह की
यह कैसी अदा
 हमें उनके ख़त  
कोरे आते रहे
                                                                                                                

Monday 18 November 2013

मेघ का मौसम झुका है


बादल के कोर पर 
पलकों के छोर पर 
एक आँसू सा रुका है 
मेघ का मौसम झुका है 

धानी चुनरिया है 
धरती बावरिया है 
अधरों में नेह का 
राज यह कैसा छुपा है
मेघ का मौसम झुका है 

मेघ बरसे देह भीजे 
हम फुहारों पे रीझे 
इन्द्र के पहले धनुष का 
बाण पलकों पर रुका है 
मेघ का मौसम झुका है 
                                                      

Monday 11 November 2013

फिर वो दिन

                                                                                                                                                                                                         फिर वो दिन                                                                                          आ गए हैं                        
छलक उठे हैं
मधुमय मधुकलश

सोनजूही चम्पाकली
झूम रही मतवाली
महक उठी 
जीवन की डाली

मुस्काया
प्रकृति का 
कण कण
हर्षित तन मन 

सिंदूरी सूर्ख
अधर करें किलोल
शिरीष के पुष्प सा
सुनहरे हुए कपोल

आम्र मंजरी से सुरभित  
मन हुआ विभोर
बीता जाए 
पल पल

तुम बिन
नीरस नीरव
आकुल मन
  प्रतीक्षारत नैन  

Sunday 3 November 2013

कुछ भी पास नहीं है

सब कुछ है देने को
मगर कुछ भी पास नहीं है
यूँ खुद को पिया है कि
हमें प्यास नहीं है

हम तो डूब ही गए
झील सी नीली आँखों में
और तुम हो कि
इस बात का अहसास नहीं है

लूटा है मुझे 
मेरे हाथों की लकीरों ने 
अपनी ही परछाई पर 
अब विश्वास नहीं है 

कुछ मुरझाये फूलों से
कमरे को सजाया है
मेरे आँगन में खिलता
अमलतास नहीं है

यूँ टूट के रह जाना  
काफी तो नहीं
आने वाले कल का
ये आभास नहीं है  
                                                                                                                                                        

Sunday 27 October 2013

कोई बात कहो तुम

                                                                   
                                                                                  मध्यम मध्यम है चाँद
रौशनी गुमशुम
मध्यम हैं धड़कनें
कोई बात कहो तुम

बरसात भी है धीमी धीमी
बौछार हौले हौले
भींगा हमारा दामन
साथ भी थे तुम

भर्राए हुए लफ्ज
वक्त का ठहरना
कांपते लबों के
बोल न थे कम

छलके हुए सागर
आँखों के किनारे
पार उतर पाएँगे
क्या ख्वाब हमारे 

Friday 11 October 2013

प्रिय प्रवासी बिसरा गया

शरद ऋतु  में हर  साल हजारों ,लाखों की  संख्या में साईबेरियाई प्रवासी पक्षी
लाखों मील की  दूरी तय कर भारत और अन्य एशियाई देशों में आते हैं .
शरद ऋतु की समाप्ति के पश्चात् क्या सभी वापस लौट पाते हैं ?
कुछ भटक जाते हैं ,तो कुछ अपनों से फिर नहीं मिल पाते .

कितने उसके संगी छूटे
कितने उसके साथी छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर इन बिछड़ों पर
कब अपना शोक मनाता है
(बच्चन जी की कविता के तर्ज पर)












फिर आ गई है बरसात                                                                        
तुम न  आए 
आती रही तुम्हारी याद  
तुम न आए 
   
   छा रही काली घटा 
   चपला चमकती 
   काश ! तुम होते यहाँ पर 
   बाजुओं में तुम्हारी आ सिमटती 

रह गया रोकर ह्रदय 
आँखें न  रोई 
बीती यादों में तुम्हारे 
न जाने कब से खोई    
   
   हुई मूक वाणी 
   दर्द गहरा गया 
   पूछती हूँ आप अपने से 
   क्या प्रिय प्रवासी बिसरा गया ?


Tuesday 1 October 2013

पुरानी डायरी के फटे पन्ने











पुरानी डायरी के फटे पन्ने
अनायास आ जाते हैं सामने
बीती यादों को कुरेदती
दुःख - दर्द को सहेजती
बेरंग जिंदगी को दिखा जाते
पुरानी डायरी के फटे पन्ने

बीते लम्हों को भुलाना
गर होता इतना आसां
कागजों पर लिखे हर्फ़ को
मिटाना होता गर आसां

जिंदगी न होती इतनी बेरंग
इन्द्रधनुषी रंगों में मिल जाता
जीवन के विविध रंग
कुछ सुख के, कुछ दुःख के
जो बिताये तेरे संग  

Thursday 19 September 2013

कहना है तुमसे









नयन खुले अधखुले
सहमी सहमी है हवाएं
पलकों पर बोझिल
बेरहमी सपनों की

  लहरे लहरे केशों की
  बिखरी परिभाषा
  अधरों पर सुर्ख हो रही
  अतृप्त मन की आशा

उठा नहीं पाते जो
झुकाते हैं पलकें
मिला नहीं पाते हैं अब
अपने आप से ही नजरें

  बंधते जा रहे हैं
  मेरे ही अल्फाजों में
  सिमटते जा रहे हैं
  मेरे ही अहसासों में

दूर क्षितिज नीलांचल फैला
अपनी बांह पसारे
जीवन नौका पर बैठे हैं
मंजिल हमें निहारे

  कितने ही तूफ़ान घिरे
  पर कभी न हिम्मत हारा
  अरूणिम संध्या और उषा से
     संगम हुआ हमारा 

Thursday 12 September 2013

चाँद जरा रुक जाओ













चाँद जरा रुक जाओ 

आने दो दूधिया रौशनी 

सितारों थोडा और चमको 

बिखेर दो रौशनी 
        

       मैं अपने महबूब को        

       ख़त लिख रहा हूँ        

       चांदनी रात में       

       महबूब को ख़त लिखना        

       कितना सुकूं देता है 

तुम यादों में बसे 

या ख्वाबों में 

दिल की गहराईयों में 

एक अहसास जगा देता है 
        

       तुम कितने पास हो         

       मैं कितना दूर         

       एक लौ है जो         

       दोनों में जली हुई 

नयनों के कोर से  

कभी देखा था तुझे 

सिमट आई थी लालिमा 

रक्ताभ कपोलों पर
          

          तारों भरी रात में           

         गीली रेत पर चलते हुए           

         हौले से छुआ था तुमने          

         सुनाई दे रही थी           

         तुम्हारे सांसों की अनुगूंज           

         नि:स्तब्द्धता को तोड़ते हुए 

तुम इतने दूर हो 

जहाँ जमीं से आसमां 

कभी नहीं मिलता 

ये ख्वाब हैं 

ख्वाब ही रहने दो  


Saturday 7 September 2013

शब्द ढले नयनों से















इन प्रणय के कोरे कागज पर
कुछ शब्द ढले नयनों से
आहत मोती के मनकों को
चुग डालो प्रिय अंखियों से
कितने चित्र रचे थे मैंने
खुली हथेली पर
कितने छंद उकेरे तुमने
नेह पहेली पर
अवगुंठन खुला लाज का
बांच गए पोथी मन मितवा
जीत गई पिछली मनुहारें
खिले फूल मोती के बिरवा
भोर गुलाबी सप्त किरण से
मन पर तुम छाए
जैसे हवा व्यतीत क्षणों को
बीन बीन लाए
बरसों बाद लगा है जैसे
सोंधी गंध बसी हों मन में
मीलों लम्बे सफ़र लांघकर
उमर हँसी हों मन दर्पण में
नदिया की लहरों से पुलकित
साँझ ढले तुम आए
लगा कि मौसम ने खुशबू के
छंद नए गाए.


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